वीर हाड़ा राजपूत कुम्भा जिसने अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे नकली बूंदी पर

यह बात उन दिनों की है जब एक बार किन्ही कारणों से मेवाड़ के महाराणा लाखा बूंदी राज्य के हाड़ाओं से नाराज हो गए एवं इसी नाराजगी के चलते महाराणा लाखा ने प्रण लिया कि जब तक वे बूंदी नहीं जीत लेते अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगे !
इस जिद को सुन महाराणा लाखा के सामंतों ने उन्हें बहुत समझाया कि इस तरह से बूंदी जैसे राज्य जिसके वीर हाड़ा राजपूतों के शौर्य का डंका हर कहीं बजता है को जीतना इतना आसान नहीं, परन्तु महाराणा लाखा के प्रण के चलते मेवाड़ के लोगों के सामने एक गंभीर समस्या ने जन्म ले लिया था जिसका कारण था कि न तो बूंदी के हाड़ा राजपूतों को इतनी सरलता से हराया जा सकता था और जिद्द पर अड़े महाराणा लाखा भी अपने प्रण से पीछे हटने वाले भी नहीं थे ! अतः मेवाड़ के सामन्तो ने एक बीच का रास्ता निकाला और महाराणा लाखा को एक मार्ग सुझाया कि अभी चितौड़ के किले के बाहर ही बूंदी का एक मिटटी का प्रतीकात्मक नकली किला बनवाकर उस पर आक्रमण कर उसे जीत लेते है और नकली बूंदी के किले पर विजय हासिल कर आप अपना भी प्रण पूरा कर लीजिये ! महाराणा ने उनकी यह बात माँ ली ! अब चितौड़ किले के ही बाहर बूंदी का एक प्रतीकात्मक मिटटी का नकली किला तैयार हुआ !
कुछ घुड़सवारों व अपने कुछ सामंतो के साथ महाराणा लाखा इस नकली बूंदी के किले को जीतने की ख्वाहिश लिए आक्रमण के लिए आगे बढे, अचानक न जाने कहाँ से दनदनाता तीर अचानक महाराणा लाखा के घोड़े को आकर लगा ! घोड़ा गश खाकर वहीं का वहीँ चित्त हो गया ! आश्चर्यचकित महाराणा आनन् फानन में घोड़े से कूद एक और जा खड़े हुए, अचानक एक दूसरा तीर आकाश को भेदता हुआ आया और एक सैनिक की छाती में समा गया गया ! अब किसी को भी समझ नहीं आ रहा था कि आखिर कौन है जो इस नकली बूंदी की तरफ से लड़ रहा है ? ये तीर आखिर चला कौन रहा है ?

बिना देर किये महाराणा ने एक सामंति को बूंदी के नकली किले की और रवाना किया ! नकली बूंदी के किले की तरफ जाकर दूत ने देखा कि वहां एक नौजवान केसरिया वस्त्र से सुसज्जित अपने कुछ मुट्ठी भर साथियों सहित अस्त्रों शस्त्रों को धारण किये उस नकली किले की रक्षा हेतु मौर्चा बांधे खड़ा है ! 
यह नौजवान बूंदी का एक आम हाड़ा राजपूत कुम्भा था जो कि महाराणा की सेना में नौकरी करता था जो आज अपने हाड़ा वंश की प्रतिष्ठा बचाने हेतु अपने दुसरे हाड़ा राजपूत वीरों के साथ मेवाड़ की सेना को जवाब देने के लिए उस नकली बूंदी को बचाने वहा आ खड़ा हुआ !

मेवाड़ के कई सामंतों ने कुम्भा को समझाया कि यदि महाराणा का प्रण पूरा नहीं हुआ तो बिना अन्न जल उनके जीवन पर संकट आ सकता है, और तुम स्वयं जो महाराणा के सेवक हो तुमने भी तो उनका नमक खाया है अतः उस नमक का फर्ज अदा करो और यहाँ से हट जाओ और महाराणा को नकली बूंदी पर प्रतीकात्मक विजय प्राप्त कर अपने प्रण का पालन करने दो !
तब कुम्भा ने कहा – में निसंदेह महाराणा का सेवक हूँ और मैंने उनका नमक खाया है इसीलिए उनका घोडा मारा गया न कि महाराणा, में एक हाडा राजपूत हूँ, बूंदी मेरी हाडा वंश की प्रतिष्ठा से जुडा हुआ है अतः आप महाराणा से कहिये बूंदी विजय का विचार त्याग दे ! मेरे लिए यह नकली बूंदी का किला भी असली से कम नहीं है, जो नकली बूंदी के लिए नहीं मर सकता वह असली बूंदी के लिए भी नहीं मर सकता है ! मैंने महाराणा का नमक खाया है इस कारण वह मेरे इस मस्तक के मालिक तो है पर मेरी मर्यादा के कतई नहीं ! यह प्रश्न हाड़ा वंश और अपनी मातृभूमि की इज्जत का है, इसलिए महाराणा मुझे क्षमा करें !
हाडा कुम्भा जी के विद्रोही तेवर देख गुस्साए महाराणा ने अपने सैनिको को नकली बूंदी पर आक्रमण का आदेश दिया ! तब कुम्भा जी ने महाराणा को कहा - " ठहरिये हुकम, आपके साथ सैनिकों की मात्रा बेहद कम है यह सैनिक इस नकली बूंदी को भी नहीं जीत पाएंगे अतः आप किले से एक बड़ी सैनिक टुकड़ी और मंगवा लीजिये, मेरी बूंदी की प्रतिष्ठा पर हर हाडा देशभक्ति से ओतप्रोत अपना सर्वस्व हँसते हँसते न्योछावर कर सकता है मे और मेरे साथियों के रहते आप इतनी सरलता से इसे नहीं जीत पायेंगे ?

चितौड़ के लोग दुर्ग की प्राचीर पर खड़े थे ! जो नकली बूंदी का विजय अभियान देख रहे थे ! अचानक उन्होंने देखा कि सैकड़ो घोड़े और हाथी सजधज कर नकली बूंदी की और बढ़ रहे है ! एक पूरी सेना बूंदी के नकली किले को घेर रही है ! चारों तरफ हर हर महादेव का उदघोष चितौड़ किले तक सुनाई दे रहा था ! अचम्भित लोग सोच में पड गए कि नकली बूंदी के लिए यह युद्ध कैसा ? कई लोगों के मन में संदेह उत्पन्न हो गया कि कहीं यह वास्तविक युद्ध तो नहीं, तो कई लोग उसे युद्ध का अभिनय समझ रहे थे !

यह युद्ध ज्यादा देर न हो सका ! हालांकि दोनों तरफ से तीरों की बौछारें हुई जहाँ एक और मेवाड़ के कई सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए तो सैकड़ों हताहत हुए वहीँ दूसरी और हडाओं की देशभक्ति व उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा हुई ! कुम्भा हाड़ा व उसके साथी लड़ते लड़ते अपनी वीरता दिखलाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए !
आजके युग में इस घटना को याद करना अत्यंत आवश्यक इसलिए है क्यूंकि एक तरफ कुम्भा जी जैसे देशभक्त लोग थे जो अपनी प्रतीकात्मक मातृभूमि की प्रतिष्ठा के लिए अपना सर्वश्व न्योछावर कर गए ! जबकि दूसरी और इसी मातृभूमि पर जन्म लिए लोग अपने कर्तव्यों से दूर होते जा रहे है ! अपने स्वार्थ हेतु रिश्ते रखते है अपने स्वार्थ हेतु लोगों का उपयोग ! 

स्व.श्री तानसिंह जी द्वारा मार्च १९४६ में लिखित और क्षत्रिय युवक संघ द्वारा प्रकाशित पुस्तक झंकार से

भारत का मान बिन्दु ,तिरंगा यह झंडा हमारा |
मर के अमर हो जाना, पर ये झंडा ना झुकाना ||
लाखों चढ़े थे शमा पर किंतु बुझने न दी ये ज्योति |
बलिदानों की ये कथाएँ बातों में ना तुम भुलाना ||
बूंदी की शान कुम्भा ने, मेवाड़ में लड़कर बचायी |
उसने नकली किला बचाया, तुम असली निशां ना झुकाना ||
हाथी से टक्कर दिला कर,छाती से किला तुड़वाया |
वीरों की अमर कहानी, चुल्लू पानी में ना तुम डूबना ||
पच्चीस वर्ष कष्टों के,प्रताप ने वन में सहे थे |
स्वतंत्रता के दीवानों का भी यही था तराना ||
ओ भारत के वीर सपूतो,ओ राष्ट्र के तुम सितारों |
जननी की लाज कभी तुम,अपने ना हाथों लुटाना ||
अपमान औ" ठोकर की अग्नि अश्रु बूंदों से ना तुम बुझाना |

बुझाना हो तुम्हे कभी तो, खून की नदी से बुझाना |

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