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वीर दुर्गादास राठौड़: इनका नाम सुन औरंगज़ेब के पसीने छूट जाते थे
जब कभी हम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी किसी शख़्सियत के जीवन की कहानी को पढ़ते हैं तो उसमें यही खोजते हैं कि ऐसा क्या अलग था जो उनके जीवन में था। उस विशेष इंसान में ऐसी क्या बात थी जिसने उन्हें मशहूर बनाया। उनमें ऐसी क्या प्रतिभा थी जो दुनिया के सामने आई।
महान शख़्सियतों के महान बनने के पीछे कई कारण होते हैं। किसी का ज्ञान उन्हें महान बनाता है, जैसे कि प्रसिद्ध भारतीय राजनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य। वहीं दूसरी ओर किसी का अहंकार उन्हें प्रसिद्ध बनाता है, जैसे कि महापंडित रावण। इसके अलावा किसी की बहादुरी भी उन्हें लोकप्रिय कर देती है, जैसे कि भारतीय शूरवीर कहलाने वाले महाराणा प्रताप।
लेकिन आज जिनकी बात हम करने जा रहे हैं वे जीवन के हर मुकाम पर खरे उतरे हैं। फिर चाहे वह राजनीति हो, कूटनीति हो या फिर शत्रु का संहार करने की नीति। उन्हें हर मोड़ पर अव्वल ही पाया गया है।
लेकिन निराशा है इस बात की कि दुनिया ने उन्हें महज़ एक अच्छा योद्धा कहकर ही सम्मानित किया है। लेकिन इससे कई बढ़कर हैं ‘वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़’। वे मात्र एक वीर नहीं थे, वे मात्र एक अच्छे योद्धा नहीं थे, बल्कि इससे बढ़कर वे एक महान राजनीतिज्ञ थे जिसे दुनिया को याद रखना चाहिए।
दुर्गादास के बारे में जो सामान्यत: बातें प्रचलित हैं वह उनकी बहादुरी को लेकर हैं। जिस समय उनका शासन था उस समय भारत के अधिकतम राज्यों पर मुगल बादशाह औरंगजेब की नज़र थी। चारों ओर छोटे-छोटे राजा अपने-अपने राज्यों को बचाने में लगे हुए थे।
लेकिन अपनी तलवार के ज़ोर पर औरंगजेब ने कई सारे राज्य धीरे-धीरे करके अपने हिस्से में ले लिए। उस समय औरंगज़ेब की तलवार से हर कोई कांपता था, लेकिन यदि उसकी क्रूरता के सामने कोई टकराने की हिम्मत रखता था तो वह थे दुर्गादास राठौड़।
अपनी युद्ध नीतियों का प्रयोग कर दुर्गादास ने उस समय औरंगज़ेब द्वारा बंदी बनाए हुए जोधपुर के शिशु महाराज, महाराजा अजीत सिंह को भी छुड़ाया था। उसका यथोचित लालन पालन करने की व्यवस्था की। दुर्गादास ने मारवाड़ की आजादी के लिए औरंगजेब की अथाह शक्ति के आगे मराठाओं की तर्ज पर छापामार युद्ध जारी रखकर उसे उलझाए रखा।
कहते हैं जब औरंगजेब को यह एहसास हुआ कि उसकी शक्ति को ललकारने वाला दुर्गादास राठौड़ तमाम कोशिशों के बाद भी हार नहीं मान रहा तो उसने दुर्गादास को विभिन्न वस्तुओं का लोभ देना आरंभ कर दिया।
उसे एक बड़ा शासन, नौकर-चाकर, मुगल शासन में एक अच्छा ओहदा, इत्यादि प्रलोभन प्रदान किया लेकिन अति स्वाभिमानी दुर्गादास ने सभी ठुकरा दिए। इस घटना के बाद हर कोई दुर्गादास को और भी अच्छे से जानने लगा।
लेकिन दुर्गादास राठौड़ की इन बातों को शायद हर कोई जानता है। लेकिन जो लोग नहीं जानते वह है दुर्गादास राठौड़ आखिरकार एक महान योद्धा कैसे बना। एक आम सा बालक एक महान कूटनीतिज्ञ कैसे बना। यह सभी बातें बताने जा रहे हैं यहां...
दुर्गादास राठौड़ का बचपन कृषि कार्य करते बीता था, जिस माहौल में वे बढ़े हुए वहां उन्हें शिक्षा मिलने का कोई स्रोत नहीं था। दरअसल दुर्गादास की मां एक वीर नारी थी, उनकी वीरता के चर्चे सुनकर ही जोधपुर के सामंत आसकरण ने उससे शादी की। लेकिन दोनों का रिश्ता कुछ ज्यादा समय तक चल ना सका, एवं अंत में आसकरण ने दुर्गादास व उसकी माता को जीवन गुजारने के लिए कुछ भूमि देकर अपने से दूर कर लिया।
पति से अलग होने के बाद दुर्गादास की मां ने अपने पुत्र के साथ ही जीवन व्यतीत करने का फैसला किया। एक दिन दुर्गादास के खेतों में जोधपुर सेना के ऊंटों द्वारा फसल उजाड़ने को लेकर चरवाहों से मतभेद हो गया और दुर्गादास ने राज्य के चरवाहे की गर्दन काट दी। फलस्वरूप जोधपुर के सैनिकों द्वारा दुर्गादास को महाराजा जसवंतसिंह के सामने पेश किया गया। दरबार में बैठे उसके पिता ने तो उस वक्त उसे अपना पुत्र मानने से भी इनकार कर दिया था।
लेकिन महाराजा जसवंत सिंह ने बालक दुर्गादास की निडरता, निर्भीकता देख उसे क्षमा ही नहीं किया वरन् अपने सुरक्षा दस्ते में भी शामिल कर लिया। इसी घटना के बाद दुर्गादास का जीवन बदल-सा गया। वह हर पल महाराज के पास रहते, उनसे राजनीति, कूटनीति के साथ ही साहित्य का भी ज्ञान हासिल करते।
महाराजा की यही सीख दुर्गादास के तब काम आई जब महाराज का निधन हो गया। उनके निधन के बाद ही राज्य में ऐसी परिस्थितियों पैदा हुईं जिन्हें बड़ी होशियारी से दुर्गादास ने संभाल लिया। इसमें कोई दो राय नहीं कि राज्य में दुर्गादास राठौड़ के पास कोई खास पद नहीं था, लेकिन अपनी प्रतिभा से वह पूरे राज्य में प्रसिद्ध थे।
लेकिन केवल एक राज्य को ही नहीं, बल्कि सभी राज्यों को एकजुट करने की नीति भी दुर्गादास ने ही बनाई थी। यह वह समय था जब औरंगजेब के डर से विभिन्न राज्यों के राजा बिखर रहे थे, वे अपने-अपने राज्यों को बचाने की ही नीति बना रहे थे लेकिन दुर्गादास ने उन्हें एकजुट होने के लिए कहा। सभी राज्यों को एक करके औरंगजेब के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर के राजपूतों को एक करके एक बड़ी शक्ति बनायी थी दुर्गादास ने।
दुर्गादास की कूटनीतियों में इतना जोर था कि उसने औरंगजेब के पुत्र, अकबर द्वितीय तक को उसके खिलाफ कर दिया था। औरंगजेब के पुत्र अकबर अपने पिता की बातों को मानने से साफ इनकार कर रहे थे, अपने पिता के खिलाफ विद्रोह किया लेकिन इतना कुछ करने के बाद जब स्वयं अकबर को अपने पिता से किसी प्रकार का सहयोग हासिल ना हुआ तब दुर्गादास ने ही अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से अकबर की मदद की।
इस बात से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि दुर्गादास की जड़ें भारत में ना होकर दूर-दूर तक फैली थीं। उस समय मराठा सम्राट संभाजी भी हुआ करते थे, इतिहासकारों के तथ्यों के अनुसार एक बार कुछ लोगों ने संभाजी की हत्या करने का षड़यंत्र किया, जिसमें अकबर को भी शामिल करने का निमंत्रण पत्र भिजवाया गया। यह प्रस्ताव अकबर को भी कुछ-कुछ ठीक लगा, क्योंकि संभाजी अकबर की बातों को मानते नहीं थे।
किंतु कुछ भी करने से पहले अकबर ने दुर्गादास से सलाह-मशवरा करने का फैसला किया। दुर्गादास ने अकबर को सीधा संभाजी से बात करने की सलाह दी और अपने दिल की बात को सामने रखने को कहा। अकबर ने ठीक वैसे ही किया, जिसके बाद संभाजी की ना केवल जान बच गई , बल्कि साथ ही अकबर संभाजी के चहेते भी बन गए।
यह घटना दुर्गादास को एक महान षड़यंत्रकर्ता होने के साथ-साथ षड़यंत्र को भेद सकने की प्रतिभा रखने वाला भी मानती है। उन्होंने एक ही ध्येय रखा कभी निष्ठा मत बदलो, जो व्यक्ति बार बार निष्ठा बदलता है वही लालच में आकर षड़यंत्रों में फंस अपना नुकसान खुद करता है
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